गुरुवार, 9 सितंबर 2010

अलविदा परी

पिछले तीन दिन से जिस मासूम बच्ची के लिए मन में वह अब इस दुनिया में नहीं रही। वह परी थी और उसका जन्म किसी मतेर्निटी होम या फिर हॉस्पिटल में नहीं, बल्कि आगरा के एक पब्लिक टोइलेट में हुआ था। उसकी माँ उसे जन्म देना चाहती थी और उसे अपने साथ भी रखना चाहती थी। मगर, उसके परिवार वाले इस अनचाही बच्ची से पिंड छुड़ाना चाहते थे। उन्होंने उस मासूम को मरने की भी कोशिश की, इसलिए की उसने बिन ब्याही माँ की कोख से जन्म लिया था। लेकिन, वह बच गयी। अधमरी हालत में वह मेडिकल कॉलेज पहुंची और तीन दिन तक जिन्दगी और मौत की लड़ाई लडती रही। आखिर उसकी मौत हो गयी। इन तीन दिनों में उसका हाल जानने के लिए कोई नहीं पहुंचा। न तो उसकी माँ और न ही उसके अपने। इस बेचारी पारी को उन गुनाहों की सजा दी जाती रही, जो उसने किया ही नहीं। यह सिर्फ आगरा की पारी की कहानी नहीं है। करीब तीन महीने पहले मेरठ में भी एक परी जन्मी थी। लावारिस हालत में वह सड़क पर पड़ी मिली थी। उसके अपनों ने ही इस अनचाही परी से जान छुड़ाने के लिए उसकी जान की परवाह किये बगैर उसे सड़क पर फेंक गए थे। यह तो भला हो उस शख्स का जो उसे हॉस्पिटल ले गया। वरना तमाम शहरों में ऐसी परी सड़कों पैर आये दिन फेंकी जाती हैं और उनके मस्सों बदन को कुत्ते नोंच कर खा जाते हैं। सवाल इन नन्हीं जान का ही नहीं है, उस सोसाइटी के करेक्टर का भी है। आगरा में जन्मी परी और उसके कथित पिता की शादी करने को लेकर पंचायत हुई, एक बार नहीं कई बार। पंचायत ने समाज और बिरादरी की दुहाई देते हुए दोनों की शादी करने का फरमान जारी किया, लेकिन उस बेचारी परी की जान बचने के लिए एक शब्द भी नहीं बोला। लड़की के माँ-बाप भी अपनी इज्जत और लोकलाज का हवाला देते हुए अपनी बेटी की शादी पर ही जोर देते रहे, बेटी की कोख से जन्मी परी के लिए उनके दिल में कोई जगह नहीं थी। जिन्दगी और मौत से जूझ रही परी से सामाजिक ही नहीं मानवीय रिश्ते को भी निभाना मुनासिब नहीं समझा। किसी के भी दिल में इस परी के लिए दर्द नहीं यह बिरादरी सिर्फ और सिर्फ लोकलाज और इज्जत को लेकर ही फैसला करती रहेगी। उन्हें थोडा इंसानी होना होगा। ताकि इस लोक में कोई परी आये तो फिर इस परी की तरह जा न सके।

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