रविवार, 17 अक्तूबर 2010

बिग बॉस और उनकी सेना

कलर्स का हिट रियलिटी शो बिग बॉस इन दिनों काफी चर्चा में है। एक तो अपने सल्लू भाई इसे प्रेजेंट कर रहे हैं और दूसरा इसलिए भी महाराष्ट्र की सेना की इस शो को लेकर नाराजगी। पहले का तो फार्मूला हिट हो रहा है और दूसरा इस पोपुलारिटी को अपनी लोकप्रियता को बढ़ने में इस्तेमाल करने की कोशिश में जुटी हुई है। दरअसल इस सेना को बिग बॉस में शामिल हो रहे पाकिस्तानियों अखर रहा है। तरह-तरह के बयानों से कलर्स चैनेल को डराने की कोशिशें की जाती रहीं। बयानों के साथ ही महाराष्ट्र के केबल संचालकों को भी डराया गया। उन्हें मजबूरन कलर्स के प्रसारण को रोकना पड़ा। बावजूद इसके कि मौजूदा समय में येही एक ऐसा सीरियल है जो लोगों को आकर्षित कर रहा है। क्रमशः

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

इन मुश्किलों का कोई तोड़ नहीं

अक्टूबर की १२ तारीख एक हिस्टोरिकल डेट थी। पांच साल पहले इसी तारीख को एक अनूठा एक्ट लागू हुआ। लोगों को नौकरशाही और आफिसों के जंजाल से निजात दिलाने के मकसद की शुरुआत का दिन था यह। आरटीआई एक्ट के जरिये लोगों को जानकारी हासिल करने के हक को लेकर पूरा देश उत्साहित था। गवर्नमेंट भी इसे एक बेहतर कदम बताकर इसे एक उपलब्धि करार दे रही थी। इस दावे में जितने दमदार तरीके से पेश किया जा रहा था, उसकी हकीक़त की जमीन उतनी ही पोली। करप्शन पर रोक और लोगों के फाइलों में पेंडिंग पड़े कामों के हालत से कुछ हद तक राहत मिली, लेकिन आफिसों के मकडजाल और सरकारी डिपार्टमेंट की लेटलतीफी से लोग अभी भी जूझने को मजबूर हैं। इसके आगे पांच साल की उम्र पूरी कर चुका आरटीआई एक्ट भी बेमानी साबित हो रहा है। हाल ही में आरटीआई एक्ट पर प्राइस वाटरहाउस कूपर्स का किया गया सर्वे भी इसकी हकीक़त को उजागर करता है। सर्वे के मुताबिक़ २६ फीसदी लोगों को आरटीआई के तहत अप्लिकेशन जमा करने के लिए तीन-तीन बार आफिसों के चक्कर काटने पड़ते हैं। आरटीआई को लेकर सरकारी डिपार्टमेंट और खुद सरकार कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी महकमों में इससे सम्बंधित कोई बोर्ड तक नहीं लगा है। यह तो महज जानकारी हासिल करने कि जंग कि शुरुआत भर है। अप्लिकेशन जमा हो गयी तो इसे उपलब्ध करने में ४५ दिन की बजाय महीनों लग जाते हैं। इसकी वजह भी है कि ८९ प्रतिशत अधिकारियों को आरटीआई के तहत सूचना उपलब्ध कराने का तरीका ही नहीं मालूम है या फिर वे तय प्रक्रिया को अपनाते ही नहीं हैं। अब ऐसे में लाजिमी है कि लोगों को ऐसी सूचनाओं पर यकीन हो भी तो कैसे? सर्वे कहता है कि ७५ फीसदी लोगों को आरटीआई के जरिये उपलब्ध सूचनाएं भरोसे लायक नहीं होती हैं। यह तो बात रही पब्लिक और सूचनाओं की। गवर्नमेंट आफिसों और डिपार्टमेंट का लचर सिस्टम भी पब्लिक के इस हथियार को भोथरा बना रहा है। कैसे जानकारी उपलब्ध करानी है रिकॉर्ड को कैसे मेंटेन करना है, इसकी कोई प्रोपर जानकारी ही अधिकारियों को नहीं है। ४८ प्रतिशत अधिकारियों को रिकॉर्ड मैनेजमेंट कीजानकारी नहीं है और ४५ फीसदी पीआईओ को इसकी ट्रेनिंग की कमी खल रही है। आरटीआई के अहम् फैसलों तक कि जानकारी नहीं है। सिर्फ एक्ट बना और लागू कर देना ही उपलब्धि नहीं होती यह सही तरह से काम करे और उसका मकसद सही मायने में पूरा हो सके यह भी ख्याल रखना जरूरी है। मंचों से आरटीआई लागू करने का क्रेडिट लेने के लिए सभी आगे आते हैं, लेकिन इसको लेकर पब्लिक और सरकारी महकमों में कोई अवेरनेस प्रोग्राम चलने की जरूरत महसूस नहीं की गयी। आफिसों में रिकॉर्ड को सही तरीके से रखा जा सके इसके लिए प्रस्तावित इ-गवर्नेंस प्रोग्राम के साथ सरकारी डिपार्टमेंट में भेजे गए कंप्यूटर धुल फांक रहे हैं। जहाँ सही कंडीशन में हैं तो वहां नेट और गमेस का मजा लूटने के काम आ रहे हैं। लोगों को फायदा पहुचना ही मकसद है तो अर्श की बजाय फर्श से काम की शुरुआत करने की जरूरत है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

जंग अभी जारी है

बात आई गयी हो चुकी है। अब तो कामनवेल्थ गेम्स भी करीब आ चुके हैं। इन खेलों की तैयारियों के बीच कई खेल खेले गए। किसी से कुछ छुपा नहीं है। आरोप लगे, मामला उछला और बहस भी छिड़ी। मगर, असली खेल को लेकर कोई ख़ास चिंता न तो ओर्गानिज़िंग कमिटी में दिखी और न ही इस 'खेल' से दुनिया भर में हुई हिन्दुस्तानियों की किरकिरी की किसी को फिक्र थी। हो भी क्यों? इस तरह के खेल तो यहाँ के सिस्टम की आदत में शुमार हो चला है। कोई काम करना हो तो बगैर लिए-दिए कुछ नहीं होता। आम जरुरत के काम से लेकर सुरक्षा के मामलों में भी रिश्वत का घुन लग चुका है। देश में भूचाल लाने वाला बोफोर्स का मामला तो आप सभी को याद ही होगा। बिहार का चारा घोटाला भी आप नहीं भूले होंगे। करप्शन से घिरे इस सिस्टम में तो अब इसे अनिवार्य मान लिया गया है। बावजूद इसके हर भारतीय के मन में एक टीस उठती है। इस टीस के साथ अफ़सोस इस बात का भी है कि इस करप्ट सिस्टम को पालने-पोसने का काम भी हमारे और आपके बीच के लोग ही कर रहे हैं। क्या अपने जरुरी औए जायज काम के लिए कि जेब गर्म करना जरुरी है। उनके लिए भी जो इस 'सिस्टम' को नहीं स्वीकारते और उनके लिए भी जिन्हें ऐसा करना कतई गंवारा नहीं। किस तरह से आईओसी के इंजिनियर एस मंजुनाथ की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। महज इसलिए कि इस इमानदार इंजिनियर ने पेट्रोल पम्प मालिक की धांधलियों को गलत ठहराया था। इसी तरह बिहार में सत्येन्द्र दुबे का मर्डर कर दिया गया। उसका कसूर बस इतना था कि वह नॅशनल हाईवे अथोरिटी के लिए टेंडर डालने वालों को खटक रहा था। इस ईमानदार शख्स ने पीएम्ओ तक इसकी शिकायत की थी। करप्शन के खिलाफ उसकी लड़ाई का नतीजा बेहद दर्दनाक रहा। कितने ही मंजुनाथ और सत्येन्द्र आज भी इस करप्शन को सपोर्ट करने से इनकार करते आ रहे हैं, लेकिन उनका साथ देने वाले इस सिस्टम में कहीं नजर नहीं आते। इसलिए उनके लिए ऐसी घटनाएं कभी कोई मायने नहीं रखतीं और उनके लिए यह कोई नयी बात नहीं है। फिर उनके पास मजबूरी भी है कि आखिर वे किस-किस के खिलाफ कार्रवाई करते घूमेंगे। भाई, हमाम में तो सभी नंगे हैं।

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

अलविदा परी

पिछले तीन दिन से जिस मासूम बच्ची के लिए मन में वह अब इस दुनिया में नहीं रही। वह परी थी और उसका जन्म किसी मतेर्निटी होम या फिर हॉस्पिटल में नहीं, बल्कि आगरा के एक पब्लिक टोइलेट में हुआ था। उसकी माँ उसे जन्म देना चाहती थी और उसे अपने साथ भी रखना चाहती थी। मगर, उसके परिवार वाले इस अनचाही बच्ची से पिंड छुड़ाना चाहते थे। उन्होंने उस मासूम को मरने की भी कोशिश की, इसलिए की उसने बिन ब्याही माँ की कोख से जन्म लिया था। लेकिन, वह बच गयी। अधमरी हालत में वह मेडिकल कॉलेज पहुंची और तीन दिन तक जिन्दगी और मौत की लड़ाई लडती रही। आखिर उसकी मौत हो गयी। इन तीन दिनों में उसका हाल जानने के लिए कोई नहीं पहुंचा। न तो उसकी माँ और न ही उसके अपने। इस बेचारी पारी को उन गुनाहों की सजा दी जाती रही, जो उसने किया ही नहीं। यह सिर्फ आगरा की पारी की कहानी नहीं है। करीब तीन महीने पहले मेरठ में भी एक परी जन्मी थी। लावारिस हालत में वह सड़क पर पड़ी मिली थी। उसके अपनों ने ही इस अनचाही परी से जान छुड़ाने के लिए उसकी जान की परवाह किये बगैर उसे सड़क पर फेंक गए थे। यह तो भला हो उस शख्स का जो उसे हॉस्पिटल ले गया। वरना तमाम शहरों में ऐसी परी सड़कों पैर आये दिन फेंकी जाती हैं और उनके मस्सों बदन को कुत्ते नोंच कर खा जाते हैं। सवाल इन नन्हीं जान का ही नहीं है, उस सोसाइटी के करेक्टर का भी है। आगरा में जन्मी परी और उसके कथित पिता की शादी करने को लेकर पंचायत हुई, एक बार नहीं कई बार। पंचायत ने समाज और बिरादरी की दुहाई देते हुए दोनों की शादी करने का फरमान जारी किया, लेकिन उस बेचारी परी की जान बचने के लिए एक शब्द भी नहीं बोला। लड़की के माँ-बाप भी अपनी इज्जत और लोकलाज का हवाला देते हुए अपनी बेटी की शादी पर ही जोर देते रहे, बेटी की कोख से जन्मी परी के लिए उनके दिल में कोई जगह नहीं थी। जिन्दगी और मौत से जूझ रही परी से सामाजिक ही नहीं मानवीय रिश्ते को भी निभाना मुनासिब नहीं समझा। किसी के भी दिल में इस परी के लिए दर्द नहीं यह बिरादरी सिर्फ और सिर्फ लोकलाज और इज्जत को लेकर ही फैसला करती रहेगी। उन्हें थोडा इंसानी होना होगा। ताकि इस लोक में कोई परी आये तो फिर इस परी की तरह जा न सके।